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सोमवार, 8 अगस्त 2011

एक सवाल

एक प्रश्न मेरे ज़ेहन में बार-बार उठता है कि जातिवादी व्यवस्था जो हमारे समाज में एक अरसे से चली  आ रही  है,उसका समाधान क्या हो! आखिर वह कौन सी मानसिकता या कि सामाजिक समझ थी जिसने इस विचार को जन्म दिया होगा कि समाज खांचे में बटा हो.लेकिन इधर कुछ मित्रों की असहिष्णुता देखकर अहसास होता है कि किंचित ऐसे ही कुछ कट्टर मानसिकता के लोग होंगें जिन्होंने स्वयं को अन्यों से श्रेष्ठ मान लिया होगा.मैं बात कर रही हूँ आरक्षण के मुद्दे पर छिड़ी उस गर्म बहस की जिसमें पढ़े लिखे समझदार लोग भी नासमझों की भाषा इस्तेमाल कर रहे हैं और साम्प्रदायिकता के ज़हर का प्रसार कर रहे हैं. क्या आप को नहीं लगता कि इस तरह तो हम एक वर्णव्यवस्था से निकलकर दूसरी में प्रवेश करने की ओर अग्रसर हैं?

3 टिप्‍पणियां:

  1. सही मुद्दे पर प्रश्न उठाता है ये सवाल.......जब तक ये देश जाति के बन्धनों से मुक्त नहीं होता तब तक देश की प्रगति होना बहुत मुश्किल है|

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  2. बहन सुधा, मेरा मानना कि जाति-प्रथा या व्यवस्था सभ्य मानव
    समाज के लिये कलंक एवं अभिशाप की तरह है। हमारी सैकड़ों
    साल की गुलामी का प्रमुख कारण यह जाति व्यवस्था ही थी।
    हम तथाकथित ऊँची जाति का आवरण ओढ़े हुये लोगों को इसे
    त्यागना होगा। मैंने धर्म, ईश्वर एवं जाति के संबंध में कविता
    के माध्यम से अपने विचार व्यक्त किये हैं। कृपया मेरे blog
    पर आकर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    http://dineshkranti.blogspot.com/

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  3. अंसारी जी और दिनेश जी आप दोनों को धन्यवाद.आपके सुझाव और विचारों का स्वागत है.

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