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बुधवार, 15 अगस्त 2018

सफ़र में शहर

किसी अनजान शहर से
गुजरती रेल पुचकारती है
बलखाती स्ट्रीट लाइटों के आगोश में
लेटी सड़क को
          वातानुकूलन के शीशे
          किसी साज़िश से लगते हैं

हजारों-हजार रोशनियों, दबाव
और छोटे-से-छोटे कंपन से
वज़ूद को बाख़बर रखने की
बेसब्री के बीच
उस शहर को महसूस करना
क़तई मुश्किल है।

उम्र भर की थकन अवसाद
नाउम्मीदी से ज़ार बाशिंदों को
थपकियाँ देता वह
हजारों रूहों की सिसकियों में
काँप रहा था।
        मुझे घर पे सोया
        अपना बच्चा याद आता है

कहीं चाँदनी कहीं दिये
और कहीं पीली मनहूस लाइटों में
घने गांछों तले पसरा शहर
जाति रंग और कुल के खोल से
निकल आया है निर्वस्त्र
अबाध आसमान तले
अपने पैरहन को सुखाता हुआ
रेल की चुँधियाती रोशनी में सिहरता
झींगुरों से पैबंद सिल रहा है
           कल की सुबह
           बहुत तंग रही है गोया

एक अनमना चाँद टँगा था
उस मैली नदी के तीर पर
अमूमन ख़ामोश रहने वाली
वो लड़की
बहुत देर तक बैठी थी यहाँ

-सुधा

मंगलवार, 14 अगस्त 2018

सफ़र में शहर

किसी अनजान शहर से
गुजरती रेल पुचकारती है
बलखाती स्ट्रीट लाइटों के आगोश में
लेटी सड़क को
          वातानुकूलन के शीशे
          किसी साज़िश से लगते हैं

हजारों-हजार रोशनियों, दबाव
और छोटे-से-छोटे कंपन से
वज़ूद को बाख़बर रखने की
बेसब्री के बीच
उस शहर को महसूस करना
क़तई मुश्किल है।

उम्र भर की थकन अवसाद
नाउम्मीदी से ज़ार बाशिंदों को
थपकियाँ देता वह
हजारों रूहों की सिसकियों में
काँप रहा था।
        मुझे घर पे सोया
        अपना बच्चा याद आता है

कहीं चाँदनी कहीं दिये
और कहीं पीली मनहूस लाइटों में
घने गांछों तले पसरा शहर
जाति रंग और कुल के खोल से
निकल आया है निर्वस्त्र
अबाध आसमान तले
अपने पैरहन को सुखाता हुआ
रेल की चुँधियाती रोशनी में सिहरता
झींगुरों से पैबंद सिल रहा है
           कल की सुबह
           बहुत तंग रही है गोया

एक अनमना चाँद टँगा था
उस मैली नदी के तीर पर
अमूमन ख़ामोश रहने वाली
वो लड़की
बहुत देर तक बैठी थी यहाँ

-सुधा

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

बीमारी से नहीं मरते बच्चे

बीमारी से नहीं मरते बच्चे
वो मरते हैं
मरी हुई व्यवस्था के विष से.

अस्पताल में दाखिल होने के
बहुत पहले
अपनी कुंठा, गरीबी और लाचारी
को जब लाद देते हैं
उनके अविकसित पुट्ठे पर
अपनी मरी हुई आकांक्षाओं के बोझ तले
नहीं देख पाते हम टूट टूट कर बिखरता
वह अनमना फूल.

बीमारी नहीं
उसे मारते हैं हम
अपनी नाकामी से.
-सुधा.

बुधवार, 27 सितंबर 2017

न्यूटन

एक आदमी जिसने जमीन और आसमान को एक कर दिया, जिसने यह क्रांतिकारी तथ्य सिद्ध किया कि पहाड़ से एक राजा और एक गरीब एक साथ गिरें तो वो एक साथ नीचे गिरेंगे. याद आया 'To every action there is an equal and opposite reaction'  बेहद हल्के फुल्के अंदाज में कही गयी ये बात फिल्म के क्लाइमेक्स में केन्द्रीय तत्व बन जाती है.
नक्सल प्रभावित इलाके में चुनाव के आयोजन की जिम्मेदारी पर गया एक दुबला-पतला बेहद मामूली सा इंसान. ईवीएम, इंक, कवरों, फॉर्मों, कार्बन पेपर, बैग और चुनाव अधिकारियों के दल के साथ नया-नवेला प्रेसाइडिंग अधिकारी. यूं तो अशांत क्षेत्र में पहली बार चुनाव की जिम्मेदारी के सुचारु एवं शांतिपूर्ण समापन में सहयोग हेतु सुरक्षा अधिकारी अपने दल के साथ प्रेसाइडिंग अधिकारी के अंतर्गत नियुक्त किया गया है,  पर सेना के अधिकारी के लिए चुनाव किसी पिकनिक या सर्कस से कम नहीं है. फिल्म की शुरूआत में ही दर्शक यह अंदाजा लगा लेते हैं कि सैन्य अधिकारी इस चुनाव को लेकर खास उत्साहित नहीं है और चुनाव के नतीजे को लेकर भी कुछ-कुछ अंदाजा हो ही जाता है. दंडकारण्य के हरितिम जंगलों के बीच फिल्म लय पकड़ना शुरू करती है, छोटे-छोटे संवादों में चुनाव अधिकारी का व्यक्तित्व छनकर आता है. एक-एक दृश्य जुड़कर पूरा परिवेश रचता चला जाता है, सिपाहियों के बूटों और बंदूकों से क्षत जंगल और उसका सन्नाटा जैसे इशारों में कुछ जताने के लिए बेचैन है... मलको की तरह. राजकुमार राव के बाद जो दूसरा किरदार आकर्षित करता है, वो है मलको. एक निश्चित सा स्थिर भाव है उसके चेहरे पर जो पूरे फिल्म के स्पेस में बरकरार रहता है, वह अविकल भाव जैसे जंगल का बयान है. फिल्म हमें बताती है कि मलको का अर्थ चंचल होता है, कितने सामान्य तरीके से जंगल अपना दर्द रखकर चला जाता है, कोई शोर नहीं कोई मलाल नहीं, यह स्थिरता दर्शक को तोड़कर रख देती है. जले हुए घर हो या उजड़ा जंगल, या कि सेना और नक्सलियों के शक्ति-प्रदर्शन की मूक गवाह वह उजड़ा स्कूल हो या फिर जंगल में यूं ही विचरते अधनंगा, कुपोषित बच्चों को सिपाहियों द्वारा बेमतलब पकड़ कर मनोरंजन का सामान बनाया जाना हो... उसकी आँखें बिल्कुल नहीं चौंकती. वोटिंग के दौरान मतदाताओं के नहीं आने और सैन्य अधिकारी के रवैये से परेशान प्रेसाइडिंग अधिकारी जब शिकायत लिखने बैठता है, तो मलको कहती है, आप ये सब आज देख रहे हैं हम यह देखते हुए बड़े हुए हैं. उसका मानना है कि निराशावादी वह नहीं हो सकती क्योंकि वह आदिवासी है. धीमी लय में चलती कहानी में अचानक एक अंधा मोड़ आता है विदेशी पत्रकार के साथ. सेना का बड़ा अधिकारी अपने लाव-लश्कर के साथ जंगल में आता है और उसी के साथ पूरा जंगल जैसे हरकत में आ जाता है. जवानों के आगे भागते आदिवासी उस मुर्गे से हैं जो बूढ़ी औरत के देगची में मसालों में रहने की नियति से भरसक निकल जाना चाहता है. गांव जलाकर कैंपों में बसाये गये लोग चुनाव को सफल बनाने आते हैं, जिनके लिए ईवीएम किसी खिलौने जैसी है.
एक क्षण को जीवन के बहते प्रवाह के बीच से पकड़कर ज्यों का त्यों रख देना, फ़्रीज़ कर देना सिनेमा की सबसे बड़ी ताक़त है। रोज़मर्रा की गतिविधियों में मशगूल जब उसे हम पर्दे पर देखते हैं तो एक़बारगी चौंक उठते है...उस जिए हुए को अपने से विच्छिन्न कर एकदम तटस्थ रूप में देखने की शक्ति देता है सिनेमा. यह फिल्म इस मायने में एक बेहतरीन फिल्म है. असुरक्षित कहे जाने वाले जंगल में कुछ भी असुरक्षा का कारण नहीं दीखता, सिवाय बंदूकों के और जब इस सत्य का साक्षात्कार नायक को होता है उसकी कर्त्तव्य बुद्धि एकदम से जाग उठती है. वह सुनिश्चत करता है कि चुनाव के निर्धारित समय तक मतदान होगा, क्योंकि लोकतंत्र में अंतिम मत भी महत्त्वपूर्ण है और वह सुरक्षा अधिकारी पर बंदूक तान देता है. तीन बजने के बाद ही वह समाप्ति दस्तावेज पर हस्ताक्षर करता है. यह कल्ट दृश्य है, पूरी फिल्म की दिशा ईवीएम लेकर दौड़ते और धूल सने कमीज में घायल  बंदूक ताने चुनाव अधिकारी की छवि बदल कर रख देती है.

पुनश्च: नायक के न्यूटन नाम के पीछे का तर्क थोड़ा लचर जरूर है, नाम के पीछे तनिक वास्तविक कारण ढूंढा जाना चाहिए था.

शनिवार, 23 सितंबर 2017

बारिशें

छोटी-छोटी बूँदों की उतावली
लड़ियाँ जब दिनों
बरसती रहें
जैसे आसमान के दिल में
कोई बात सुराख कर गयी हो
खुद झर-झर नष्टनीड़
हो हर सूखेपन के खिलाफ
बरस पड़ती बारिशों को देखना
क्यों देखना भर ही नहीं हो सकता बस
ये बेवजह की परेशानियां कितनी बावजह है
क्यों बताऊं
एक चिड़िया जो भोर से
ही नाराज पड़ी है इनसे
चीं-चीं कर पूरी खिड़की पर नाकामयाब
उड़ान की खराशें रख गयी है
उसकी झुंझलायी आँखों की जर्दी पर
प्यार आया है बेवजह!
कंक्रीट की दीवार पर
चलती डिब्बे की तरतीब
अविकल रही इन बेमकसद बातों से
उसे इन चिड़ियों, इन टहनियों और
बरसातों से क्या!
जिंदगी की सरपट दौड़ में ठुनकते
इन दिनों से क्या!
-सुधा.

सोमवार, 28 अगस्त 2017

नदी का भी एक रंग होता है

नदी खोई-सी थी
लहर...पानी...फूल...
सबसे अलग
पत्थर की सीढ़ियों से सिर टकराती
हर बार.
दूर कहीं वो जहाज जा रहा था
जहाँ डूबता है सूरज
चुपचाप हर रोज.
सुनो नदी गा रही है
वही गीत जो होठों से फिसल पड़ा था अभी पानी में.

पानी का भी एक रंग होता है.

    -सुधा.

बुधवार, 13 नवंबर 2013

माँ बरसाती नदी है

माँ बरसाती नदी है
रिमझिम बूँदों की सुंदरता न हो
पर जीवन को भरे-पूरे रूप में समो लेने
की शक्ति है वह
हर आने वाली बारिश में
भर जाती है पूरी-की-पूरी
और बीतते मौसम के साथ
जब उतर जाता है समूचा पानी
उसकी सोंधी आँखों में कौंध जाता है
किसी बिखरते हुए बादल का वह दृश्य
जो उसकी मिट्टी की तहों के नीचे कहीं दूर बसा है ।

हर बार की टोक जो झंुझला जाती है मन को
पर जानती हूँ मैं
वह जीना चाहती है मुझमें भरपूर, एक-एक पल में
मरना चाहती है मेरे साथ
क्योंकि बरसाती नदी है वह
और जानती है कि हर बीतता समय
उसे ख़ाली नहीं करता
तभी तो घोर एकाकीपन में भी
वह बचाये रखती है पानी की स्मृति को
अपनी देह पर ।

- सुधा🌺