पृष्ठ

यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

झरोखा

मन है और उसको ओढ़े हुए एक देह
जीवन, धरती,फूल, शब्द 
और
विस्तृत मरुप्रांतर की शुष्क हवा
के ऊपर खिला है आकाश.


समुद्र है कहीं दूर उस न देखे झरोखे-सा
नदी की
छूटी हुई  धारा की पहुँच से बाहर
आँखों के काजल में डूबती दिशाएं
कुछ चिटक-सा जाता है हर बार.


आह ईश्वर! तुम हो
क्या यहीं कहीं बादलों में इन्द्रधनुष के रंगों-से
ओ मायावी!  


सोमवार, 8 अगस्त 2011

एक सवाल

एक प्रश्न मेरे ज़ेहन में बार-बार उठता है कि जातिवादी व्यवस्था जो हमारे समाज में एक अरसे से चली  आ रही  है,उसका समाधान क्या हो! आखिर वह कौन सी मानसिकता या कि सामाजिक समझ थी जिसने इस विचार को जन्म दिया होगा कि समाज खांचे में बटा हो.लेकिन इधर कुछ मित्रों की असहिष्णुता देखकर अहसास होता है कि किंचित ऐसे ही कुछ कट्टर मानसिकता के लोग होंगें जिन्होंने स्वयं को अन्यों से श्रेष्ठ मान लिया होगा.मैं बात कर रही हूँ आरक्षण के मुद्दे पर छिड़ी उस गर्म बहस की जिसमें पढ़े लिखे समझदार लोग भी नासमझों की भाषा इस्तेमाल कर रहे हैं और साम्प्रदायिकता के ज़हर का प्रसार कर रहे हैं. क्या आप को नहीं लगता कि इस तरह तो हम एक वर्णव्यवस्था से निकलकर दूसरी में प्रवेश करने की ओर अग्रसर हैं?

saara aakash: जानेवालों से - निदा फाजली

saara aakash: जानेवालों से - निदा फाजली: "जानेवालों से राब्ता* रखना दोस्तों, रस्मे-फातहा रखना जब किसी से कोई गिला रखना सामने अपने आइना रखना घर की तामीर* चाहे जैसी हो इसमें ..."

जानेवालों से - निदा फाजली

जानेवालों से राब्ता* रखना
दोस्तों, रस्मे-फातहा रखना

जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आइना रखना

घर की तामीर* चाहे जैसी हो
इसमें रोने की कुछ जगह रखना

जिस्म में फैलने लगा है शहर
अपनी तन्हाईयाँ बचा  रखना

मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिए
अपने दिल में कहीं खुदा रखना

मिलना-जुलना जहाँ ज़रूरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना

उम्र करने को है पचास को पार
कौन है किस जगह पता रखना



*१. सम्बन्ध
*२. निर्माण




रविवार, 7 अगस्त 2011

aisi hi thi barsaat

कभी शब्द और अर्थ पास होकर भी किसी अनजाने क्षितिज 
की ओर खुलने लगते हैं ...क्या है ये ! 
इस इंद्रजाल की सोंधी सी महक में 
हलके बहुत थोड़े से भींगे पत्तों की छुअन 
डाल से अभी-अभी टपके फूल की लजाई मुस्कान
और रात के अन्धकार में डूबते अंतिम तारे 
की अटूट निष्ठा 
ये सब और बहुत और भी कुछ हमसे लिपटता जाता है...

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

saara aakash: कला

saara aakash: कला: "'यह शायद मस्तिष्क का एक ही उचित पक्ष होता है जो एक पुरुष को आभूषणों और कला के अपेक्षाकृत अधिक स्थिर सिद्धांतों से सम्बंधित सत्य या क्या सही ..."

कला

"यह शायद मस्तिष्क का एक ही उचित पक्ष होता है जो एक पुरुष को आभूषणों और कला के अपेक्षाकृत अधिक स्थिर सिद्धांतों से सम्बंधित सत्य या क्या सही है - इसका एक विचार बनाने में सक्षम बनाता है. इसमें पूर्णता का एक ही केंद्र होता है,हालाँकि यह अपेक्षाकृत छोटे वृत्त का केंद्र होता है. वेशभूषा के फैशन द्वारा इसका खुलासा करने के लिए -इसमें अच्छी या बुरी रुचि होती है. एक वेशभूषा के तत्व बड़े से लघु, छोटे से लंबे में निरंतर बदलते रहते हैं; लेकिन उसका आकार आमतौर पर एक सा रहता है,जिसे तुलनात्मक रूप से बहुत हल्के आधार पर तैयार किया जाता है. लेकिन फैशन इसी पर आधारित होता है. एक व्यक्ति जो बहुत सफलतापूर्वक सुरुचिपूर्ण नई वेशभूषा की ईजाद करता है, वह संभवतः उसी कुशलता को इससे बड़े उद्देश्य  में लगाये तो उसी उचित रुचि के आधार पर कला में भी उच्च स्तरीय दक्षता हासिल कर लेगा."


(सर जोशुआ रेनॉल्ड्स के डिस्कोर्स    -स्त्रियों की पराधीनता से साभार.)