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मंगलवार, 26 जुलाई 2011

आधुनिक शेखर

  " विद्रोही बनते नहीं, उत्पन्न होते हैं.विद्रोह्बुद्धि परिस्थियों से संघर्ष की सामर्थ्य, जीवन की क्रियाओं से, परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से नहीं निर्मित होती. वह आत्मा का कृत्रिम परिवेष्टन नहीं है, उसका अभिन्नतम अंग है. मैं नहीं मानता कि दैव कुछ है, क्योंकि हममें कोई विवशता, कोई बाध्यता है तो वह बाहरी नहीं, भीतरी है. यदि बाहरी होती,परकीय होती, तो हम उसे दैव कह सकते, पर वह तो भीतरी है, हमारी अपनी है, उसके पक्के होने के लिए भले ही बाहरी निमित्त हो.  उसे हम व्यक्तिगत नियति - 'Personal destiny' - कह सकते हैं."
   'शेखर : एक जीवनी' उपन्यास की शुरुआत अज्ञेय 'मैं' शैली में करते हैं परन्तु कथा के प्रवाह के साथ इस 'मैं' का तृतीय पुरुष  में

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

गरज-बरस - निदा फाजली

निदा फाजली की शायरी में  बारिश के बाद धुले आकाश में खिलते इन्द्रधनुष की-सी कशिश है.इनके अंदाज़-ए-बयां में जिंदगी के हर रंग ढलें हैं, आज हम जिस कठिन समय में जी रहें हैं...जहाँ इन्सानियत की दुहाई देना बुझदिली समझी जाती है और दूसरों को चोट पहूँचाने को कला.मुंबई में हूआ  सिरीयल ब्लास्ट तो उस बर्बरता की  एक कड़ी भर है जिसने दुनिया भर में लाखों निर्दोष लोगों की जाने ली है...ऐसे में निदा फाजली की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं जो मैंने बहुत पहले पढ़ीं थी....




गरज-बरस प्यासी धरती पर 
                          फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाने, बच्चों को
                          गुडधानी दे मौला


दो और दो का जोड़ हमेशा 
                          चार कहाँ होता है
सोच-समझवालों को थोड़ी
                          नादानी दे मौला


फिर रौशन कर ज़हर का प्याला 
                          चमका नयी सलीबें
झूठों की दुनिया में सच को
                          ताबानी* दे मौला 


फिर मूरत से बाहर आकार 
                          चारों ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई 'मीरा'
                          दीवानी दे मौला


तेरे होते कोई किसी की
                        जान का दुश्मन क्यों हो
जीनेवालों को मरने की
                        आसानी दे मौला



* ताबानी- जगमगाहट 

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

aisi hi thi barsaat





कभी शब्द और अर्थ पास होकर भी किसी अनजाने क्षितिज 
की ओर खुलने लगते हैं ...क्या है ये ! 
इस इंद्रजाल की सोंधी सी महक में 
हलके बहुत थोड़े से भींगे पत्तों की छुअन 
डाल से अभी-अभी टपके फूल की लजाई मुस्कान
और रात के अन्धकार में डूबते अंतिम तारे 
की अटूट निष्ठा 
ये सब और बहुत और भी कुछ हमसे लिपटता जाता है...कैप्शन जोड़ें