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बुधवार, 18 अप्रैल 2012

शहर

सोया हुआ शहर 
आँखों में 
उतरा आये ख्वाब की तरह होता है.

कुछ रातरानी के फूल 
अनगिन दीयों की टिमटिमाती महक में
घुल गए हों जैसे
हल्की सरसराहटों में
बीता हुआ वक़्त आकाश
के झीने चादर को
गहराता चला जाता है

और चांदी की नदी
सपनीली घाटियों में आते-आते ठिठक पड़ती है
                                                                                                                                                       -सुधा 



शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

स्मित

जब तुम अपनी तोतली आवाज़ में
शब्दों के घरौंदें बुनती हो
मेरे आकाश की डाली पर
एक गुलमोहर खिलता है

अपनी नन्हीं उँगलियों के स्पर्श से
तुम मन की किसी अदृश्य वीणा
पर छेड़ देती हो
कोई सुहाना राग.

वसंत के पूर्वागमन-सी 
स्वप्न में मुकुलित तुम्हारी आँखें
मरुभूमि के उपवन तो नहीं!
क्या कहूँ इन्हें!!

फिर जाने क्यूँ यह जग
तुम्हारे आगमन पर
नहीं गुनगुनाता खुशी के गीत.
तुम्हारे शब्दों को घेर लेता है अपने
दायरे में
और
तुम
इस आँगन में सारी सीमाओं को झुठलाते हुए
भींगे होठों के पीछे से
अपनी धवल मुस्कान
बिखरा जाती हो
आह! मेरी स्मित..








शनिवार, 3 मार्च 2012

सफ़ेद पंख

जब कभी तुम अपने सफ़ेद पंखों में
मुझे
लपेट लेती हो
तुम्हारे सादेपन की रंगत
मेरा कुछ ले उड़ती है.
घने गांछों के सिर पर
जहाँ सांझ उगती है
और डूब जाता है
अनमना-सा सूरज
कुछ भी तो नहीं बदलता
फिर जाने क्यों टहनियां झुक जाती हैं
उदास होकर
और
जरा सा रूककर तुम  मुझे छोड़ देती हो 
वहीँ कहीं अनजाने में ही












शनिवार, 14 जनवरी 2012

ख़्वाब

पहले ख्वाब केवल तीन तरह के होते थे- बच्चों का ख़्वाब, जवानों का ख़्वाब और बूढों का ख़्वाब. फिर ख्वाबों की इस फ़ेहरिस्त में आजादी के ख़्वाब भी शामिल हो गये. और फिर ख्वाबों की दुनिया में बड़ा घपला हुआ. माता-पिता के ख़्वाब बेटे-बेटियों के ख्वाबों से टकराने लगे. पिताजी बेटे को डॉक्टर बनाना चाहते हैं, और बेटा कम्युनिस्ट पार्टी का होल टाइमर बनकर बैठ जाता है. केवल यही घपला नहीं हुआ. बरसाती कीड़ों कि तरह भांति-भांति के ख़्वाब निकल आए. क्लर्कों के ख़्वाब. मजदूरों के ख़्वाब. मिल मालिकों के ख़्वाब. फिल्म स्टार बनने के ख़्वाब. हिंदी ख़्वाब. उर्दू  ख़्वाब. हिन्दुस्तानी ख़्वाब. पाकिस्तानी ख़्वाब. हिंदू ख़्वाब. मुसलमान ख़्वाब. सारा देश ख़्वाबों की दलदल में फँस गया. बच्चों, नौजवानों और बूढों के ख़्वाब ख़्वाबों की धक्कमपेल में तितर-बितर हो गये. हिंदू बच्चों, हिंदू  बूढ़ों और हिंदू नौजवानों के ख़्वाब मुसलमान बच्चों, मुसलमान बूढ़ों और मुसलमान नौजवानों के ख़्वाबों से अलग हो गये. ख़्वाब बंगाली, पंजाबी और उत्तर प्रदेशी हो गए. 
राजनीति वालों ने केवल यह देखा कि एक दिन हिंदुस्तान से एक टुकड़ा अलग हो गया और उसका नाम पकिस्तान पड़ गया. यदि केवल इतना ही हुआ होता तो घबराने कि कोई बात न होती. परन्तु ख़्वाब उलझ गये और साहित्यकार के हाथ-पाँव काट गये. ख़्वाब देखना व्यक्ति, देश और उम्रों का काम है. परन्तु हमारे देश में आजकल व्यक्ति ख़्वाब नहीं देखता. जागते-जागते देश की आंखें दुखने लगती हैं- रही उम्रें - तो वे ख़्वाब देखना भूल गई हैं.
आखिर कोई किस बूते पर ख़्वाब देखे!
परन्तु क्राइसिस यह है कि किसी को इस क्राइसिस का पता ही नहीं है क्योंकि अपने ख़याल में सब कोई-न-कोई ख़्वाब देख रहे हैं.


                                               (राही मासूम रज़ा के 'टोपी शुक्ला' से साभार.)

सोमवार, 9 जनवरी 2012

मौसम

जब हम साथ होते हैं
कभी मौसम के बारे में नहीं पूछते 
क्या ही बेमानी सी चीज़  मालूम पड़ती है
कि कहें- 
देखो 
आज धूप खिली है 
वह उगती है 
और छा जाती है
हम पर
हवा चलती है 
और बहका जाती है
बारिश में घुलती मिट्टी की
महक
बहुत जानी-सी है
और
तुम्हारी बूंदों में पल-पल सोंधा हो जाना 
मैंने सीखा है
चुपचाप.


सुनो
तुम्हारे छत पर 
क्या आज भी हँसता है चाँद
जैसे 
कभी हमारे खुले सिरों  पर
खुल-खुल बरस पड़ता था 


और
मेरी अँजुरी
बन जाती थी हरसिंगार.