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गुरुवार, 18 अगस्त 2011

झरोखा

मन है और उसको ओढ़े हुए एक देह
जीवन, धरती,फूल, शब्द 
और
विस्तृत मरुप्रांतर की शुष्क हवा
के ऊपर खिला है आकाश.


समुद्र है कहीं दूर उस न देखे झरोखे-सा
नदी की
छूटी हुई  धारा की पहुँच से बाहर
आँखों के काजल में डूबती दिशाएं
कुछ चिटक-सा जाता है हर बार.


आह ईश्वर! तुम हो
क्या यहीं कहीं बादलों में इन्द्रधनुष के रंगों-से
ओ मायावी!  


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