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सोमवार, 23 सितंबर 2013

नदी

एक नदी थी
कुछ काई की रंगत वाली
पहाड़ों के चादर में लिपटी हुई
उसके शांत स्थिर पानी में
दिखती थीं कई-कई विस्मृतियां
हाँ, जब धूप उसके पैरों के कोने से फिसलकर
चादर के पीछे सो रहती है।

सतह के नीचे फैले शैवालों से
झाँकती हैं किलकारियाँ
और रात घिरने पर ढेर के ढेर उगे अंगूरों
पर आवारा बच्चों की मचलती टोलियाँ
सैलानियों की रंगीन टोपियाँ
जो प्रेमी जोडों की आतुर फुसफुसाहट में उलझ चुकी हैं
और वह सब जो इसके ज़िंदा होने के गवाह थे,
कहीं खो गये हैं शायद।

कहते हैं पूर्णमासी की भरी रात में आज भी
गा उठती है नदी
और पहाड़ों के बीच पानी बहता रहता है.




--- सुधा.

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