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शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

स्मित

जब तुम अपनी तोतली आवाज़ में
शब्दों के घरौंदें बुनती हो
मेरे आकाश की डाली पर
एक गुलमोहर खिलता है

अपनी नन्हीं उँगलियों के स्पर्श से
तुम मन की किसी अदृश्य वीणा
पर छेड़ देती हो
कोई सुहाना राग.

वसंत के पूर्वागमन-सी 
स्वप्न में मुकुलित तुम्हारी आँखें
मरुभूमि के उपवन तो नहीं!
क्या कहूँ इन्हें!!

फिर जाने क्यूँ यह जग
तुम्हारे आगमन पर
नहीं गुनगुनाता खुशी के गीत.
तुम्हारे शब्दों को घेर लेता है अपने
दायरे में
और
तुम
इस आँगन में सारी सीमाओं को झुठलाते हुए
भींगे होठों के पीछे से
अपनी धवल मुस्कान
बिखरा जाती हो
आह! मेरी स्मित..








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