एक नदी थी
कुछ काई की रंगत वाली
पहाड़ों के चादर में लिपटी हुई
उसके शांत स्थिर पानी में
दिखती थीं कई-कई विस्मृतियां
हाँ, जब धूप उसके पैरों के कोने से फिसलकर
चादर के पीछे सो रहती है।
सतह के नीचे फैले शैवालों से
झाँकती हैं किलकारियाँ
और रात घिरने पर ढेर के ढेर उगे अंगूरों
पर आवारा बच्चों की मचलती टोलियाँ
सैलानियों की रंगीन टोपियाँ
जो प्रेमी जोडों की आतुर फुसफुसाहट में उलझ चुकी हैं
और वह सब जो इसके ज़िंदा होने के गवाह थे,
कहीं खो गये हैं शायद।
कहते हैं पूर्णमासी की भरी रात में आज भी
गा उठती है नदी
और पहाड़ों के बीच पानी बहता रहता है.
--- सुधा.
हाँ ...प्रकृति से दूर तो चले ही आये हैं हम ..... सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मोनिका जी
जवाब देंहटाएंbahut sundar rachna .............bilkul jivantta ka anubhav..........
जवाब देंहटाएं